Meghdoot (Hindi)

Fiction & Literature, Anthologies
Cover of the book Meghdoot (Hindi) by Kalidas, Sai ePublications & Sai Shop
View on Amazon View on AbeBooks View on Kobo View on B.Depository View on eBay View on Walmart
Author: Kalidas ISBN: 9781310254093
Publisher: Sai ePublications & Sai Shop Publication: November 23, 2014
Imprint: Smashwords Edition Language: Hindi
Author: Kalidas
ISBN: 9781310254093
Publisher: Sai ePublications & Sai Shop
Publication: November 23, 2014
Imprint: Smashwords Edition
Language: Hindi

1
कश्चित्‍कान्‍ताविरहगुरुणा स्‍वाधिकारात्‍प्रमत:
शापेनास्‍तग्‍ड:मितमहिमा वर्षभोग्‍येण भर्तु:।
यक्षश्‍चक्रे जनकतनयास्‍नानपुण्‍योदकेषु
स्निग्‍धच्‍छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।

कोई यक्ष था। वह अपने काम में असावधान
हुआ तो यक्षपति ने उसे शाप दिया कि
वर्ष-भर पत्‍नी का भारी विरह सहो। इससे
उसकी महिमा ढल गई। उसने रामगिरि के
आश्रमों में बस्‍ती बनाई जहाँ घने छायादार
पेड़ थे और जहाँ सीता जी के स्‍नानों द्वारा
पवित्र हुए जल-कुंड भरे थे।

2
तस्मिन्‍नद्रो कतिचिदबलाविप्रयुक्‍त: स कामी
नीत्‍वा मासान्‍कनकवलयभ्रंशरिक्‍त प्रकोष्‍ठ:
आषाढस्‍य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्‍टसानु
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।।

स्‍त्री के विछोह में कामी यक्ष ने उस पर्वत
पर कई मास बिता दिए। उसकी कलाई
सुनहले कंगन के खिसक जाने से सूनी
दीखने लगी। आषाढ़ मास के पहले दिन पहाड़ की
चोटी पर झुके हुए मेघ को उसने देखा तो
ऐसा जान पड़ा जैसे ढूसा मारने में मगन
कोई हाथी हो।

3
तस्‍य स्थित्‍वा कथमपि पुर: कौतुकाधानहेतो-
रन्‍तर्वाष्‍पश्चिरमनुचरो राजराजस्‍य दध्‍यौ।
मेघालोके भवति सुखिनो∙प्‍यन्‍यथावृत्ति चेत:
कण्‍ठाश्‍लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्‍थे।।

यक्षपति का वह अनुचर कामोत्‍कंठा
जगानेवाले मेघ के सामने किसी तरह
ठहरकर, आँसुओं को भीतर ही रोके हुए देर
तक सोचता रहा। मेघ को देखकर प्रिय के पास में सुखी
जन का चित्त भी और तरह का हो जाता
है, कंठालिंगन के लिए भटकते हुए विरही
जन का तो कहना ही क्‍या?

4
प्रत्‍यासन्‍ने नभसि दयिताजीवितालम्‍बनार्थी
जीमूतेन स्‍वकुशलमयीं हारयिष्‍यन्‍प्रवृत्तिम्।
स प्रत्‍यग्रै: कुटजकुसुमै: कल्पितार्घाय तस्‍मै
प्रीत: प्रीतिप्रमुखवचनं स्‍वागतं व्‍याजहार।।

जब सावन पास आ गया, तब निज प्रिया
के प्राणों को सहारा देने की इच्‍छा से उसने
मेघ द्वारा अपना कुशल-सन्‍देश भेजना चाहा।
फिर, टटके खिले कुटज के फूलों का
अर्घ्‍य देकर उसने गदगद हो प्रीति-भरे
वचनों से उसका स्‍वागत किया।

5
धूमज्‍योति: सलिलमरुतां संनिपात: क्‍व मेघ:
संदेशार्था: क्‍व पटुकरणै: प्राणिभि: प्रापणीया:।
इत्‍यौत्‍सुक्यादपरिगणयन्‍गुह्यकस्‍तं ययाचे
कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्‍चेतनाचेतनुषु।।

धुएँ, पानी, धूप और हवा का जमघट
बादल कहाँ? कहाँ सन्‍देश की वे बातें जिन्‍हें
चोखी इन्द्रियोंवाले प्राणी ही पहुँचा पाते हैं?
उत्‍कंठावश इस पर ध्‍यान न देते हुए
यक्ष ने मेघ से ही याचना की।
जो काम के सताए हुए हैं, वे जैसे
चेतन के समीप वैसे ही अचेतन के समीप
भी, स्‍वभाव से दीन हो जाते हैं।

View on Amazon View on AbeBooks View on Kobo View on B.Depository View on eBay View on Walmart

1
कश्चित्‍कान्‍ताविरहगुरुणा स्‍वाधिकारात्‍प्रमत:
शापेनास्‍तग्‍ड:मितमहिमा वर्षभोग्‍येण भर्तु:।
यक्षश्‍चक्रे जनकतनयास्‍नानपुण्‍योदकेषु
स्निग्‍धच्‍छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।

कोई यक्ष था। वह अपने काम में असावधान
हुआ तो यक्षपति ने उसे शाप दिया कि
वर्ष-भर पत्‍नी का भारी विरह सहो। इससे
उसकी महिमा ढल गई। उसने रामगिरि के
आश्रमों में बस्‍ती बनाई जहाँ घने छायादार
पेड़ थे और जहाँ सीता जी के स्‍नानों द्वारा
पवित्र हुए जल-कुंड भरे थे।

2
तस्मिन्‍नद्रो कतिचिदबलाविप्रयुक्‍त: स कामी
नीत्‍वा मासान्‍कनकवलयभ्रंशरिक्‍त प्रकोष्‍ठ:
आषाढस्‍य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्‍टसानु
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।।

स्‍त्री के विछोह में कामी यक्ष ने उस पर्वत
पर कई मास बिता दिए। उसकी कलाई
सुनहले कंगन के खिसक जाने से सूनी
दीखने लगी। आषाढ़ मास के पहले दिन पहाड़ की
चोटी पर झुके हुए मेघ को उसने देखा तो
ऐसा जान पड़ा जैसे ढूसा मारने में मगन
कोई हाथी हो।

3
तस्‍य स्थित्‍वा कथमपि पुर: कौतुकाधानहेतो-
रन्‍तर्वाष्‍पश्चिरमनुचरो राजराजस्‍य दध्‍यौ।
मेघालोके भवति सुखिनो∙प्‍यन्‍यथावृत्ति चेत:
कण्‍ठाश्‍लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्‍थे।।

यक्षपति का वह अनुचर कामोत्‍कंठा
जगानेवाले मेघ के सामने किसी तरह
ठहरकर, आँसुओं को भीतर ही रोके हुए देर
तक सोचता रहा। मेघ को देखकर प्रिय के पास में सुखी
जन का चित्त भी और तरह का हो जाता
है, कंठालिंगन के लिए भटकते हुए विरही
जन का तो कहना ही क्‍या?

4
प्रत्‍यासन्‍ने नभसि दयिताजीवितालम्‍बनार्थी
जीमूतेन स्‍वकुशलमयीं हारयिष्‍यन्‍प्रवृत्तिम्।
स प्रत्‍यग्रै: कुटजकुसुमै: कल्पितार्घाय तस्‍मै
प्रीत: प्रीतिप्रमुखवचनं स्‍वागतं व्‍याजहार।।

जब सावन पास आ गया, तब निज प्रिया
के प्राणों को सहारा देने की इच्‍छा से उसने
मेघ द्वारा अपना कुशल-सन्‍देश भेजना चाहा।
फिर, टटके खिले कुटज के फूलों का
अर्घ्‍य देकर उसने गदगद हो प्रीति-भरे
वचनों से उसका स्‍वागत किया।

5
धूमज्‍योति: सलिलमरुतां संनिपात: क्‍व मेघ:
संदेशार्था: क्‍व पटुकरणै: प्राणिभि: प्रापणीया:।
इत्‍यौत्‍सुक्यादपरिगणयन्‍गुह्यकस्‍तं ययाचे
कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्‍चेतनाचेतनुषु।।

धुएँ, पानी, धूप और हवा का जमघट
बादल कहाँ? कहाँ सन्‍देश की वे बातें जिन्‍हें
चोखी इन्द्रियोंवाले प्राणी ही पहुँचा पाते हैं?
उत्‍कंठावश इस पर ध्‍यान न देते हुए
यक्ष ने मेघ से ही याचना की।
जो काम के सताए हुए हैं, वे जैसे
चेतन के समीप वैसे ही अचेतन के समीप
भी, स्‍वभाव से दीन हो जाते हैं।

More books from Sai ePublications & Sai Shop

Cover of the book Chamatkar Aur Beti Ka Dhan (Hindi) by Kalidas
Cover of the book Rajarshi (Hindi) by Kalidas
Cover of the book Two Sister (Hindi) by Kalidas
Cover of the book Prema (Hindi) by Kalidas
Cover of the book Mansarovar - Part 2 (Hindi) by Kalidas
Cover of the book Mansarovar - Part 1 (Hindi) by Kalidas
Cover of the book Holi Ka Uphar (Hindi) by Kalidas
Cover of the book Srikanta (Hindi) by Kalidas
Cover of the book Namak ka Droga (Hindi) by Kalidas
Cover of the book Sunderkand (Hindi) by Kalidas
Cover of the book Aankh Ki Kirkiri (Hindi) by Kalidas
Cover of the book Chamatkar Aur Beti Ka Dhan (Hindi) by Kalidas
Cover of the book The Biology, Physiology and Sociology of Reproduction by Kalidas
Cover of the book Mansarovar - Part 7 (Hindi) by Kalidas
Cover of the book Grah Niti Aur Naya Vivah (Hindi) by Kalidas
We use our own "cookies" and third party cookies to improve services and to see statistical information. By using this website, you agree to our Privacy Policy