मेरा मन भौंरा है, आपके चरण-कमल के पराग के रस का पान करता रहे। इसका अभिप्राय यह है कि मन में अगर तृप्ति और रस का अनुभव होता रहे तो संसार के रस में क्यों पड़ना? संसार मनुष्य को विषयों में ले जाता है और विषय के बिना तो व्यक्ति जीवित नहीं रहेगा। जब शरीर ही नहीं रहेगा तो ऐसी स्थिति में क्या करें? इसका जो उत्तर दिया गया, वह यह है कि वस्तु को आप 'प्रसाद' के रूप में स्वीकार कीजिए। आप मिष्ठान्न भी ग्रहण कीजिए। सुन्दर वस्त्राभूषण भी धारण कीजिए, परन्तु इन वस्तुओं को पहले प्रसाद बनाइए और प्रसाद बना देने के पश्चात् उनको आप स्वीकार कीजिए। आजकल तो प्रसाद भी एक तरह की परम्परा में आ गया है। जैसा कि लोग करते हैं, परन्तु प्रसाद के पीछे जो दर्शन है, जो भावना है, उस पर आप जरा गहराई से विचार करके देखिए। आपने भगवान् की मूर्ति के सामने मिष्ठान्न रखा, भगवान् को भोग लगाया और वह प्रसाद बन गया। मिष्ठान्न तो ज्यों का त्यों है, भगवान् ने तो कुछ खाया नहीं। फिर क्या अन्तर पड़ गया? इसका उत्तर यही है कि आपने जिस वस्तु का भोग लगाया, उस वस्तु का सच्चे अर्थों में अर्पण किया है तो उसे भगवान् ने खा लिया। जब आप संसार में किसी व्यक्ति को कुछ देते हैं तो वही वस्तु दे सकते हैं कि जो आपकी है। जो वस्तु आपकी नहीं है, उसको देने का दावा आप कर ही नहीं सकते।
मेरा मन भौंरा है, आपके चरण-कमल के पराग के रस का पान करता रहे। इसका अभिप्राय यह है कि मन में अगर तृप्ति और रस का अनुभव होता रहे तो संसार के रस में क्यों पड़ना? संसार मनुष्य को विषयों में ले जाता है और विषय के बिना तो व्यक्ति जीवित नहीं रहेगा। जब शरीर ही नहीं रहेगा तो ऐसी स्थिति में क्या करें? इसका जो उत्तर दिया गया, वह यह है कि वस्तु को आप 'प्रसाद' के रूप में स्वीकार कीजिए। आप मिष्ठान्न भी ग्रहण कीजिए। सुन्दर वस्त्राभूषण भी धारण कीजिए, परन्तु इन वस्तुओं को पहले प्रसाद बनाइए और प्रसाद बना देने के पश्चात् उनको आप स्वीकार कीजिए। आजकल तो प्रसाद भी एक तरह की परम्परा में आ गया है। जैसा कि लोग करते हैं, परन्तु प्रसाद के पीछे जो दर्शन है, जो भावना है, उस पर आप जरा गहराई से विचार करके देखिए। आपने भगवान् की मूर्ति के सामने मिष्ठान्न रखा, भगवान् को भोग लगाया और वह प्रसाद बन गया। मिष्ठान्न तो ज्यों का त्यों है, भगवान् ने तो कुछ खाया नहीं। फिर क्या अन्तर पड़ गया? इसका उत्तर यही है कि आपने जिस वस्तु का भोग लगाया, उस वस्तु का सच्चे अर्थों में अर्पण किया है तो उसे भगवान् ने खा लिया। जब आप संसार में किसी व्यक्ति को कुछ देते हैं तो वही वस्तु दे सकते हैं कि जो आपकी है। जो वस्तु आपकी नहीं है, उसको देने का दावा आप कर ही नहीं सकते।