Author: | Tulsidas | ISBN: | 9781329908482 |
Publisher: | Sai ePublications & Sai Shop | Publication: | March 3, 2016 |
Imprint: | Sai ePublications & Sai Shop | Language: | Hindi |
Author: | Tulsidas |
ISBN: | 9781329908482 |
Publisher: | Sai ePublications & Sai Shop |
Publication: | March 3, 2016 |
Imprint: | Sai ePublications & Sai Shop |
Language: | Hindi |
आजु सुदिन सुभ घरी सुहाई रूप-सील-गुन-धाम राम नृप-भवन प्रगट भए आई अति पुनीत मधुमास, लगन-ग्रह-बार-जोग-समुदाई हरषवन्त चर-अचर, भूमिसुर-तनरुह पुलक जनाई बरषहिं बिबुध-निकर कुसुमावलि, नभ दुन्दुभी बजाई कौसल्यादि मातु मन हरषित, यह सुख बरनि न जाई सुनि दसरथ सुत-जनम लिये सब गुरुजन बिप्र बोलाई बेद-बिहित करि क्रिया परम सुचि, आनँद उर न समाई सदन बेद-धुनि करत मधुर मुनि, बहु बिधि बाज बधाई पुरबासिन्ह प्रिय-नाथ-हेतु निज-निज सम्पदा लुटाई मनि-तोरन, बहु केतुपताकनि, पुरी रुचिर करि छाई मागध-सूत द्वार बन्दीजन जहँ तहँ करत बड़ाई सहज सिङ्गार किये बनिता चलीं मङ्गल बिपुल बनाई गावहिं देहिं असीस मुदित, चिर जिवौ तनय सुखदाई बीथिन्ह कुङ्कम-कीच, अरगजा अगर अबीर उड़ाई नाचहिं पुर-नर-नारि प्रेम भरि देहदसा बिसराई अमित धेनु-गज-तुरग-बसन-मनि, जातरुप अधिकाई देत भूप अनुरुप जाहि जोइ, सकल सिद्धि गृह आई सुखी भए सुर-सन्त-भूमिसुर, खलगन-मन मलिनाई सबै सुमन बिकसत रबि निकसत, कुमुद-बिपिन बिलखाई जो सुखसिन्धु-सकृत-सीकर तें सिव-बिरञ्चि-प्रभुताई सोइ सुख अवध उमँगि रह्यो दस दिसि, कौन जतन कहौं गाई जे रघुबीर-चरन-चिन्तक, तिन्हकी गति प्रगट दिखाई अबिरल अमल अनुप भगति दृढ़ तुलसिदास तब पाई
आजु सुदिन सुभ घरी सुहाई रूप-सील-गुन-धाम राम नृप-भवन प्रगट भए आई अति पुनीत मधुमास, लगन-ग्रह-बार-जोग-समुदाई हरषवन्त चर-अचर, भूमिसुर-तनरुह पुलक जनाई बरषहिं बिबुध-निकर कुसुमावलि, नभ दुन्दुभी बजाई कौसल्यादि मातु मन हरषित, यह सुख बरनि न जाई सुनि दसरथ सुत-जनम लिये सब गुरुजन बिप्र बोलाई बेद-बिहित करि क्रिया परम सुचि, आनँद उर न समाई सदन बेद-धुनि करत मधुर मुनि, बहु बिधि बाज बधाई पुरबासिन्ह प्रिय-नाथ-हेतु निज-निज सम्पदा लुटाई मनि-तोरन, बहु केतुपताकनि, पुरी रुचिर करि छाई मागध-सूत द्वार बन्दीजन जहँ तहँ करत बड़ाई सहज सिङ्गार किये बनिता चलीं मङ्गल बिपुल बनाई गावहिं देहिं असीस मुदित, चिर जिवौ तनय सुखदाई बीथिन्ह कुङ्कम-कीच, अरगजा अगर अबीर उड़ाई नाचहिं पुर-नर-नारि प्रेम भरि देहदसा बिसराई अमित धेनु-गज-तुरग-बसन-मनि, जातरुप अधिकाई देत भूप अनुरुप जाहि जोइ, सकल सिद्धि गृह आई सुखी भए सुर-सन्त-भूमिसुर, खलगन-मन मलिनाई सबै सुमन बिकसत रबि निकसत, कुमुद-बिपिन बिलखाई जो सुखसिन्धु-सकृत-सीकर तें सिव-बिरञ्चि-प्रभुताई सोइ सुख अवध उमँगि रह्यो दस दिसि, कौन जतन कहौं गाई जे रघुबीर-चरन-चिन्तक, तिन्हकी गति प्रगट दिखाई अबिरल अमल अनुप भगति दृढ़ तुलसिदास तब पाई