जब प्रेम का यह उच्चतम आदर्श प्राप्त हो जाता है, तो ज्ञान फिर न जाने कहाँ चला जाता है। तब भला ज्ञान की इच्छा भी कौन करे? तब तो मुक्ति, उद्धार, निर्वाण की बातें न जाने कहाँ गायब हो जाती हैं। इस दैवी प्रेम में छके रहने से फिर भला कौन मुक्त होना चाहेगा? ''प्रभो! मुझे धन, जन, सौन्दर्य, विद्या, यहाँ तक कि मुक्ति भी नहीं चाहिए। बस इतनी ही साध है कि जन्म जन्म में तुम्हारे प्रति मेरी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।'' भक्त कहता है, ''मैं शक्कर हो जाना नहीं चाहता, मुझे तो शक्कर खाना अच्छा लगता है।'' तब भला कौन मुक्त हो जाने की इच्छा करेगा? कौन भगवान के साथ एक हो जाने की कामना करेगा? भक्त कहता है, ''मैं जानता हूँ कि वे और मैं दोनों एक हैं, पर तो भी मैं उनसे अपने को अलग रखकर उन प्रियतम का सम्भोग करूँगा।'' प्रेम के लिए प्रेम - यही भक्त का सर्वोच्च सुख है।
जब प्रेम का यह उच्चतम आदर्श प्राप्त हो जाता है, तो ज्ञान फिर न जाने कहाँ चला जाता है। तब भला ज्ञान की इच्छा भी कौन करे? तब तो मुक्ति, उद्धार, निर्वाण की बातें न जाने कहाँ गायब हो जाती हैं। इस दैवी प्रेम में छके रहने से फिर भला कौन मुक्त होना चाहेगा? ''प्रभो! मुझे धन, जन, सौन्दर्य, विद्या, यहाँ तक कि मुक्ति भी नहीं चाहिए। बस इतनी ही साध है कि जन्म जन्म में तुम्हारे प्रति मेरी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।'' भक्त कहता है, ''मैं शक्कर हो जाना नहीं चाहता, मुझे तो शक्कर खाना अच्छा लगता है।'' तब भला कौन मुक्त हो जाने की इच्छा करेगा? कौन भगवान के साथ एक हो जाने की कामना करेगा? भक्त कहता है, ''मैं जानता हूँ कि वे और मैं दोनों एक हैं, पर तो भी मैं उनसे अपने को अलग रखकर उन प्रियतम का सम्भोग करूँगा।'' प्रेम के लिए प्रेम - यही भक्त का सर्वोच्च सुख है।